वर्तमान परिदृश्य में कैसे जियें

 आधुनिकता के दौड़ में दुनिया सरल से जटिल, सादगी से विलासिता की ओर अग्रसर है। विभिन्न वैज्ञानिक आविष्कारों, तकनीक के उपयोग से जीवन को आरामदेह और सहज बनाने में मदद मिली है। परन्तु किसी भी चीज की अति अच्छी नहीं होती है। विकास के बेलगाम रथ पर सवार तथाकथित सभ्य समाज की जो रोजाना की जीवन शैली संघटित हुई है वो कुछ ज्यादा ही असंतुलनकारी साबित हो रही है। उच्च पोषक मानकों के अनुरूप और अच्छा भोजन गटकने के बावजूद स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता। ढीला शरीर, मोटा पेट,झुके कंधे, गंजी खोपड़ी, डायबीटीस-ब्लडप्रेशर से पीड़ित हांफता काँपता शरीर और चिता-तनावयुक्त अन्यमनस्क चिड़चिड़ा दिमाग लिए घूम रहा है आज हर इन्सान।  कैंसर, हृदय रोग, मनोविकार जैसे विरल रोगों से ग्रसित होने वालों की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है।

 क्या हैं  इन सब विसंगतियों के मूल में?

क्या आपने कभी सोचा है?

यदि नहीं सोचा तो अब सोंच लीजिए। 

क्योकि सवाल आपकी जिन्दगी का है।

वरना भेड़ और आप के बीच क्या अंतर रह जाएगा?

मेरा मानना है कि चर्चा कीजिए अपने आप से।दूसरों के साथ बिलकुल नहीं। गलतियाँ इनसान से हीं होती हैं। अपने आप से कन्फेस करें और यथासंभव गलतियो को सुधारने की एक इमानदार कोशिश कर के देखें। कोई अन्य हमारी गलतियाँ बताए तो 'ईगो हर्ट' होता है। हमारा मन सीधे तौर पर नाग की भांति व्यवहार करता है। या यूँ कहें कि यहां पर भी न्यूटन के गति का तीसरा नियम लागू होता है -- "प्रत्येक क्रिया के बराबर और विपरीत प्रतिक्रिया होती है "।
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