आर्जीमोन मेक्सिकाना यानि भटकटैया : एक परिचय

 भटकटैया, सत्यानाशी,कन्टैया या मैक्सिकन प्रिक्ली पॉप्पी यह सारे नाम आर्जीमोन मैक्सिकना नामक पौधे के हैं।


 इसके बीज काली सरसों या राई के समान दिखते हैं और विषैले होते हैं। कटीले पत्तों और फलों वाले इस हर्ब का मूल स्थान यद्यपि मेक्सिको है किंतु संसार के विभिन्न भागों सहित भारत में भी हर जगह पाया जाता है। फलों,तने या पत्तों को तोड़ने अथवा काटने पर पारदर्शी पीले दूध जैसा निकलता है इसी कारण आयुर्वेद में इसे स्वर्णक्षीरी कहां गया है।

भावप्रकाश निघंटू नामक आयुर्वेदिक ग्रंथ के अनुसार यह पीला रस घाव, दाद ,कुष्ठ इत्यादि की चिकित्सा में अत्यंत उपयोगी है। विषाणु और कीटाणुओं का नाश करता है। न ठीक होने वाले घाव के इलाज में यह रामबाण औषधि है। मुनाफाखोर,लालची व्यापारी भटकटैया के बीजों का दुरुपयोग करते हैं। वे सरसों के साथ मिलाकर तेल निकालते हैं और मिलावटी सरसों का तेल शुद्ध तेल के नाम पर बेच लेते हैं। या मिलावटी तेल मौत का कारण भी बन सकता है। इससे एपिडेमिक ड्रॉप्सी यानी पेट की झिल्ली में पानी भरने का रोग उत्पन्न हो जाता है।

              चूँकि आर्जीमोन मैक्सिकना के बीज विषैले होते हैं इनसे निकलने वाला तेल मृत्यु अथवा गंभीर रोग का कारण बन सकता है इसलिए इसके अल्प मात्रा में सेवन के परिणाम स्वरूप उत्पन्न होने वाले लक्षणों का संग्रह कर एक होम्योपैथिक दवा के रूप में इसकी प्रूविंग की जा सकती है। इस प्रकार होम्योपैथिक चिकित्सा पद्धति में एक और भारतीय औषधि का समावेश हो सकेगा जो मानवता के कल्याण की दिशा में एक और कदम साबित होगा। इसके अतिरिक्त इसके रस यानी स्वर्णक्षीर के गुणों का अध्ययन आधुनिक वैज्ञानिक विधियों द्वारा किया जाना भी आवश्यक है। प्राचीन आयुर्वेदिक ग्रंथों में दिए गए विवरण के ऊपर मैं प्रश्नचिन्ह नहीं लगा रहा परंतु मेरा मानना है कि किसी चीज पर आंख मूंदकर विश्वास करना अंधविश्वास है। पुरातन को अद्यतन बनाना वास्तव में विज्ञान का एक कर्तव्य है।

   आर्जीमोन मैक्सिकना के साथ एक मिथक भी जुड़ा हुआ है। पुराने जमाने में रसायन वैज्ञानिक जिन्हें कीमियागर या अल्केमिस्ट कहा जाता था अपने अनुसंधान और ज्ञान को काफी गुप्त रखते थे। उनके मुख्यता तीन परम लक्ष्य थे : -  (1) ब्रह्मांड के साथ मनुष्य के संबंधों की खोज और मानवता के हित में इसका लाभ उठाना। (2) अमृत की खोज और (3) सीसा या तांबा जैसे कम मूल्य वाले धातुओं को सोना में परिवर्तित करने का उपाय ढूंढना।

                     भारत में भी कीमियागरों के देसी वर्जन पाए जाते थे जिन्हें रसज्ञ, रस-सिद्ध अथवा रसायनज्ञ कहा जाता था इनमें नागार्जुन का नाम उल्लेखनीय है। कहा जाता है कि उन्होंने सोना बनाने की विधि खोज ली थी जिसमें स्वर्णक्षीरी के उपयोग के विषय में कई स्थानों पर उल्लेख किया गया है। परंतु किसी भी ग्रंथ में सोना बनाने की संपूर्ण विधि लिखी हुई नहीं मिलती है,  केवल संकेत कथाएं और उल्लेख मिलते हैं। मध्यकाल के यूरोप और पश्चिम एशिया के कीमियागर अपने ज्ञान को अत्यंत गुप्त संकेतो में नोट करते थे किंतु आज की तारीख में उन्हें समझने वाला कोई नहीं है। इन संकेतों की कोई सार्वभौमिक भाषा भी नहीं है जिसकी सहायता से इन्हें डिकोड किया जा सके।इन सब तथ्यों की सहायता से हम अंततःइस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि सत्यानाशी का न केवल औषधीय महत्व था बल्कि रासायनिक प्रक्रियाओं में भी उपयोगी था।


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