भारतीय समाज में सिनेमाई प्रवृत्ति : एक अध्ययन



 भारतीय सिनेमा के कमर्शियल सेगमेंट की ज्यादातर फिल्में शुद्ध रूप से केवल मनोरंजन के लिए बनाई जाती रहीं हैं। इनका व्यापक दर्शक वर्ग है। दूसरी तरफ कला फिल्में का संसार है जिसे सार्थक सिनेमा के नाम से भी जाना जाता है। इसकी पहुंच बहुत ही सीमित है। इनके कथ्य,कथानक, प्रस्तुतीकरण और विषय अत्यंत गुम्फित,जटिल और आम दर्शक की रूचि व समझ से परे होते हैं। इन दोनों सेगमेंट की अतिवादी फ़िल्मों से अलग कुछ ऐसी भी फिल्में बनी है जो मध्यममार्गी हैं और कमर्शियल सेगमेंट की होते हुए भी समाज में व्याप्त विसंगतियों को पर्याप्त मज़बूती के साथ हाईलाईट करती हैं और ओवरऑल बेहतर इम्पैक्ट देतीं हैं। आज ऐसी ही एक फिल्म बड़ी शिद्दत से याद आ रही है जिसे देखे मुद्दत हो गई। वो फिल्म है 70 के दशक में बनी ब्लॉकबस्टर 'रोटी, कपड़ा और मकान'। इसमें तत्कालीन सामाजिक, आर्थिक और नैतिक मूल्यों का यथार्थ चित्रण बड़ी हीं बारीकी से किया गया था जो एक औसत समझदारी वाले दर्शकों के लिए भी बोधगम्य था। आज की पीढ़ी के दर्शकों को शायद इस  महान कृति के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त न हुआ हो, परन्तु विभिन्न वीडियो स्ट्रीमिंग प्लेटफार्म्स जैसे -- यूट्यूब, जियो सिनेमा इत्यादि पर यह उपलब्ध है। सीडी-डीवीडी पर भी उपलब्ध है। अब सवाल उठता है कि मैं यहाँ 'रोटी कपड़ा और मकान' को क्यों प्रोमोट कर रहा हूँ? तो जवाब ये है कि मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं है। रोटी तब भी जरूरी थी,आज भी है, कपड़े पहनने तब भी जरूरी थे,अब भी हैं,सिर पर छत तब भी जरूरी थी,अब भी है। यानि तीनों बुनियादी जरूरतें आज भी अपनी जगह पूरी मजबूती से सिर उठाए खड़ी हैं। मगर इस बात का एहसास नये जमाने में फिर से कराया पिछले 5 सालों में एक के बाद एक आने वाली आफतो, विपत्तियों और मुसीबतों ने। वरना लोग बाग भूल ही चुके थे इन्हें। 

           सबसे पहला आघात भारत के लोगों को लगा 8 नवम्बर 2016 को रात्रि 8 बजे। जब देश के प्रधानमंत्री नेशनल न्यूज चैनलों पर प्रकट हुए और ₹ 1000/- व 500/- के नोटों के 'नो लान्गर रीगल टेन्डर' की घोषणा कर दी। साथ में इस आर्थिक आपातकाल के ढेर सारे फायदे इस तरह गिना गये मानों देश की सभी ज्वलंत समस्याओं का एकमात्र हल यही है। इसके बाद जो कुछ भी देश और जनता ने भुगता और देखा उसे दुहराने की शायद कोई आवश्यकता नहीं है। कुछ लोगों को इससे लाभ ही लाभ हुआ। फिर से सवाल उठता है कि वो लोग कौन थे जिन्हें 'डीमोनेटाईजेशन' उर्फ विमुद्रीकरण उर्फ 'नोटबंदी' से फायदा हुआ? सीधा जवाब बस इतना है कि फायदा उन्हें हुआ जिन्हें पहले से पता था या यूँ कहें कि जिनके इशारे पर यह सब कुछ हुआ। नोटबंदी का सबसे नकारात्मक व व्यापक प्रभाव छोटे-मझोले उद्योगों, व्यवसायों, मजदूरों, किसानों, मध्यम वर्ग और निम्न मध्यम वर्ग पर पड़ा। सबको रोटी और कपड़े की अहमियत का अहसास हो गया। यह एक चेतावनी थी -- "औकात में रहो ।" 

                1 जुलाई 2017 से लागू जीएसटी(Goods & Services Tax) जम्मू-कश्मीर को छोड़ कर पूरे देश में लागू हुआ। जम्मू-कश्मीर में यह 7 जुलाई को पारित हुआ। अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे व्यवसायों एवं लघु-कुटीर उद्योगों के विनाश का यह दूसरा चरण था। बड़ी संख्या में स्किल्ड एवं सेमी-स्किल्ड कामगारों के या तो रोजगार छिन गये या श्रम मूल्य घट गया। मंदी की दिशा में यह एक और कदम था। क्योंकि करों के विभिन्न स्लैब मनमाने तरीके से निर्धारित किये गये जो काफी हद तक अव्यवहरिक थे।बाद में अत्यधिक प्रतिरोध के कारण समय-समय पर इसमें बहुत सारे संशोधन किए गए जो इस बात का प्रमाण है कि जीएसटी की संरचना और लागू करने का तरीका गलत था। 

                                    तीसरा सबसे बड़ा आघात था -- 24 मार्च 2020 से लागू 'कोरोना आपातकाल' या 'लॉकडाउन'। इसका प्रभाव भारत हीं नहीं लगभग सारी दुनिया पर व्यापक रूप से पड़ा। बाजार, दुकानें, उद्योग, होटल, रेस्ट्रां बंद हो जाने और कर्फ्यू जैसा माहौल शासन द्वारा क्रियेट कर देने के कारण सर्वत्र भुखमरी की स्थिति उत्पन्न हो गई। अमेरिका (USA),यूरोप जैसे विकसित व सम्पन्न देशों में एक वक्त के भोजन के लिए चैरिटेबल संस्थाओं के द्वार पर 4-4 घंटे तक कतारों में खड़े अच्छे-भले लोगों को देखकर भला किसे आश्चर्य नहीं हुआ होगा! परन्तु हॉलिवुड के साइन्स फिक्शन सेगमेंट की बहुत सारी एडवेंचर-फैंटेसीपैक्ड फ़िल्मों में ऐसी और इससे भी भयानक त्रासदी पहले भी दिखाई गई है। मगर भारत और विभिन्न देशों की वर्तमान पीढ़ी जिसे प्रत्यक्ष महामारी से परिचय नहीं था, के लिए यह ज्यादा ही भीषण त्रासदी साबित हुआ। सर्वत्र अफरा तफरी का माहौल क्रिएट हो गया। इसके लिए सरकारी तंत्र का गैर-पेशेवराना रवैया काफी हद तक जिम्मेदार है। जो भी निर्णय लागू किये गये वो न तो समसामयिक और न सटीक साबित हुए। इसके साथ ही शासकों की वैचारिक दरिद्रता भी उजागर हो गई। जिसका परिणाम यह हुआ कि करोड़ों लोग अपने रोजगार और कारोबार को छोड़ कर माइग्रेशन के लिए मजबूर हो गये, जबकि सरकार ने आवागमन और उसके साधनों पर सख्त पहरा लगा रखा था। लोग 1000,2000 या 3000 किलोमीटर दूर अपने मूल निवास स्थानों के लिए पैदल,भूखे-प्यासे निकल पड़े। इस क्रम में लाखों लोग अत्यंत विषम परिस्थितियों से संघर्ष करते-करते अपनी जान गवां बैठे। यह केवल कोरोना वायरस का कमाल नहीं था बल्कि इस त्रासदी के पीछे कतिपय मानवीय कारस्तानियो का हाथ था। महामारी तो महज एक बहाना था, संकुचित क्षेत्रवादी विषाक्त मानसिकता को खुलकर बाहर आना था। अरे हाँ, वो प्रवासी मजदूर रोजी-रोजगार छोड़ कर यूँ ही घर जाने को उतावला नहीं था, उसे तो मकान मालिकों और स्थानीय समुदाय ने ज़बरन भगाया,बेघर किया। दुकान,बाजार,यातायात, कारखाने, निर्माण कार्यों और वर्कशॉप्स को मूर्खतापूर्ण ढंग से बंद करने का कार्य अत्यंत विनाशकारी सिद्ध हुआ। इस संदर्भ में एक मशहूर काव्योक्ति सटीक बैठती है -- 

     बिना विचारे जो करै, सो पाछै पछताए। 

      काम बिगाड़े आपनो,जग में होत हॅसाय।।

और भक्त कवि तुलसीदास ने कहा है --

    आपद काल परखिए चारि। धीरज धर्म मित्र अरु नारि।।

एक लोकोक्ति भी इसी संदर्भ में बहुत याद आ रही है --

"बानर के हाथ में नारियल "!!

कौन बानर(monkey) और कैसा नारियल?इसका जवाब सुधी पाठकों के लिए खुद ही निश्चित करना उचित है। 


           


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Celery in Hindi

सेलरी यानि अजमोद(Apium graveolens) भूमध्यसागरीय और मध्य पूर्व क्षेत्रों का मूल निवासी है। प्राचीन ग्रीस और रोम में इसके उपयोग का इतिहास मिलत...