मौसम के मिजाज और सरकारी नीतियो के चक्रव्यूह में फंसी खेती

 बीत चुका है मई का महीना और 3 जून को मॉनसून पहुंचा केरल तट।इससे पहले 'तौक्ते' और 'यास' तूफ़ानों के कारण दो बार भारी वर्षा हो चुकी है।कुछ क्षेत्रों में तौक्ते ने तबाही मचाई तो कुछ में 'यास' ने।बिहार-बंगाल-झारखंड में मूंग और सब्ज़ी की फसलें नष्टप्राय हो गई। दियारा क्षेत्रों में तरबूज, ,खरबूज, ककड़ी, खीरा और कद्दूवर्गीय सब्जियों की फसल पूरी तरह नष्ट हो गई। किसानों की मेहनत और लागत पर पानी फिर गया। चूंकि इनकी खेती में मोटी रकम लगती है,इसलिए ज्यादातर किसानों की हवा निकल गई। महाजन और बैंक तो सूद समेत कर्ज की वसूली के लिए सिर पर सवार होंगे ही ----  घर खर्च कैसे चलेगा!

समय-समय पर सरकारी और गैर-सरकारी स्तर पर जो कृषि क्षेत्र में उन्नति संबंंधी चिकने-चुुपडे आंंकड़े पेश किए जाते हैं उनसे तो लगता हैै कि सब कुछ ठीक चल रहा है। मगर ऐसा है नही।आज बिहार-यूपी के गाँवों में खेती की वो हालत नहीं है जो आम तौर पर आधिकारिक रूप से पेश की जाती है।

चौंकाने वाले तथ्य :

■ 80 से 90% रैयती किसान स्वयं खेती नही करते।मगर किसान कहलाते हैं।

■ भारत सरकार इन्हीं किसानों को प्रधानमन्त्री किसान सम्मान निधि योजना के तहत सम्मानित करती है।(6000 ₹ वार्षिक)

■ अकेले बिहार राज्य में 1,19,00,520 तथाकथित सम्मानित किसान हैं जो कुल जनसंख्या का 12 से 15% हैं।

■  वर्ष 2020 में बिहार के कुल 1002 किसानों ने पैक्सों को मात्र 0.05 लाख मीट्रिक टन गेंहू बेचा।(अर्थात 50000 क्विंटल)

जमीनी हकीकत :

रैयती किसान या भूस्वामी स्वयं खेती करने की जहमत नही उठाते हैं।दरियादिली दिखाते हुए वैसे भूमिहीन मजदूर या सीमांत किसान को जमीन जोतने-बोने देते हैं जो उपज का आधा हिस्सा बैठे बिठाए दे जाता है।अथवा अल्पकालिक या दीर्घकालिक लीज पर जमीन दे देते हैं ।इस प्रथा को बटाईदारी, मनखप आदि नामों से जाना जाता है।एक ठीक-ठाक दो फसली जमीन का औसत वार्षिक किराया आमतौर पर(धान+गेंहू)15 क्विंटल/हेक्टेयर है।बाढ,सुखाड़ या किसी अन्य कारण से फसल भले नष्ट हो जाए,खेत का किराया तो चुकाना पड़ेगा।समाज में ये सब सामान्य समझा जाता है,मगर क्या यह वास्तव में सामान्य बात है?

असामान्य बातें :

●सरकार खेती करने वालों को भी किसान मानती है और न करने वालों को भी।

●जो भूमिहीन खेती करता है,वो सरकार की नजर में किसान सम्मान योजना में लाभ प्राप्त करने का हकदार नही है।

●भूमिहीन खेती तो कर सकता है मगर कृषि संबंधित किसी भी सब्सिडी या सरकारी सहायता को प्राप्त करने का पात्र नही हो सकता।

●निजी क्षेत्र को मनमानी उपज खरीद दर निर्धारित करने की खुली छूट। 

जो खेती नही करते मगर जमीन के मालिक हैं,वे सरकारी किसान हैं और जो खेती करते हैं पर जमीन का मालिकाना हक नही रखते वे सरकार की दृष्टि में किसान नही हैं।

            भई वाह! जो पूँजी लगाए,मेहनत करे और रिस्क फैक्टर भी झेले वो न तो उद्यमी है और न किसान!उसे न तो किसान सम्मान योजना का लाभ मिलता है और न फसल क्षति मुआवजा या फसल बीमा लाभ।खाद-बीज सब्सिडी या डीजल अनुदान की तो बात भी करना बेमानी है।कृषि विभाग बिहार राज्य के वेबसाइट पर पंजीकृत किसानों की संख्या 1,67,56,502 है और प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना से लाभान्वितों की संख्या 1,19,00,520 है।यह बिहार की जनसंख्या का 12-15% हिस्सा है।आज की तारीख में यदि निष्पक्ष स्वतंत्र जांच एजेंसी से जांच या सर्वे करा लें तो तथाकथित किसानों की पोल खुल जायेगी।इनमें से 15-20% लाभुक वास्तविक किसान भी होंगे।मगर शेष निठल्लों को किस आधार पर 'सम्मानित' किया जा रहा है,यह समझ से परे है।

⁉️क्या यह जनता को नाकारा बनाने का सिस्टम नही है?

⁉️ क्या यह आम करदाता की गाढी मेहनत की कमाई व्यर्थ लुटाने जैसा नही है?

यह विकास का कैसा मॉडल है?

सरकारें दावा करती हैं एमएसपी पर किसान का अनाज खरीदने का,मगर नया कृषि बिल जिसका विरोध देशभर के किसान दिल्ली में जुट कर कर रहे हैं वह निजी क्षेत्र को खुली छूट देता है कि मनचाहे तरीके से कृषि क्षेत्र का शोषण कर सके।यदि बात करें बिहार की तो यहां पंचायत स्तर पर सहकारी कृषि साख समितियों(पैक्स) और प्रखंड स्तर पर व्यापार मंडल का सिस्टम स्थापित किया गया है जो किसान का अनाज भी खरीदती है।वित्तीय वर्ष 2020-2021 अंतर्गत बिहार सरकार ने धान अधिप्राप्ति के लिए 1868 रूपये/क्विंटल का दर निर्धारित किया मगर ज्यादातर खेतिहरों को 1100-1200 रूपये/क्विंटल की दर पर बेचना पड़ा। ये बीच का 668-768 रूपया किसकी जेब में गया?इसी प्रकार अप्रैल 2021 में गेहूँ का समर्थन मूल्य आया 1975 रूपए/क्विंटल और किसानों को औसतन1500 रूपए/क्विंटल की दर से बनियों के हाथ बेचना पड़ा। बीच का 475 रूपया कहाँ गया?

जहाँ तक वर्ष 2020-21 में गेहूँ की सरकारी खरीद की बात है,तो बिहार में कुल 1002 किसानों से मात्र 50,000 क्विंटल अनाज खरीदी गई। जबकि यहाँ 1 करोड़ 19 लाख 520 सम्मानित और 1 करोड़ 67 लाख 56 हजार निबंधित किसान हैं।जबकि पूरे भारत देश में एमएसपी पर 43 लाख 35 हजार 972 किसानों ने गेहूँ  बेचा। आधिकारिक आँकड़ों की माने तो बिहार में गेहूँ का औसत वार्षिक उत्पादन 60 लाख मीट्रिक टन है।

यहाँ ग़ौरतलब सवाल यह है कि किसान पैक्स में 1975 रूपए/क्विंटल की दर से गेहूँ बेचने के बजाय निजी क्षेत्र में 1500 रूपए/क्विंटल के भाव से बेचना क्यों पसंद करते हैं?

धान खरीद के आंकड़ों पर गौर करें तो हम पाते हैं,वर्ष 2020-21 में बिहार के 1,39,188 किसानों से 10,19,680.26 मीट्रिक टन धान खरीदा गया।इनमें से ज्यादातर पैक्स अध्यक्ष के 'यसमेन' या समर्थक हैं,जिनके नाम पर रजिस्ट्रेशन कर 1200 रूपए/क्विंटल खरीदा हुआ धान सरकार को चूना लगाते हुए बेच दिया गया।ये लोग स्थानीय छोटे व्यवसायियों के माध्यम से सस्ता धान खरीद कर सरकार से बेच देते हैं  महँगे दाम पर।

       वर्ष 2020-21 खरीफ सीजन में बिहार सरकार ने रैयत किसानों के लिए धान की पूर्व निर्धारित अधिकतम क्रय सीमा को 200 क्विंटल से बढ़ाकर 250 क्विंटल प्रति किसान कर दिया। जबकि भूमिहीन किसान के लिए 75 क्विंटल से बढ़ाकर 100 क्विंटल प्रति किसान कर दिया।इसका लाभ किसान को तो लगभग न के बराबर मिला मगर बिचौलियों की चाँदी हो गई। इसीलिए कहा जाता है,"माल महाराज के मिर्जा खेले होली"।

चालू सत्र में पैक्सों द्वारा गेहूँ की खरीद जारी है।इसमें भी वही खेत चल रहा है,जो धान क्रय में चला। 3 जून को एक हिन्दी दैनिक में बाइलाईन खबर छपी जिसका आशय यही था।

थोड़ा अतीत में चलें तो पाते हैैं पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश आदि की तरह बिहार राज्य मेें भी सरकार के नियंत्रण वाली अनाज मंडी की व्यवस्था 2006 ई० से पहले तक लागू थी।ऐसी मंडी में किसान से कोई भी MSP से कम मूल्य पर खरीद नही सकता। 2006 ई० मेें कृषि उत्पाद समितियों को खत्म कर निजी क्षेत्र को फायदा और कृषक को घाटा कराने का काम किया गया।इससे व्यापारियों को कम मूल्य लगाने की छूट मिल गई। बाद मेें झोल-झाल वाली पैक्स व्यवस्था कायम की गई जो आज किसानो के शोषण का औजार बन गई है।


 


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