मिश्रीकंद की खेती


 


हिंदी भाषी क्षेत्रों में universally मिश्रीकंद और बिहार में केसवर/ केसऊर के नाम से प्रसिद्ध यह कंद मीठा, स्वादिष्ट और स्वास्थ्यवर्धक गुणों से भरपूर होता है। इसमें लो कैलोरी,फाइबर,मिनरल्स और एंटीऑक्सीडेंट प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। अंग्रेजी भाषा में इसे मैक्सिकन याम बिन(Maxican yam been) कहां जाता है। जीव विज्ञान की भाषा में इसका नाम पैकीराईजस इरोसस (Pachyrhizus erosus) रखा गया है। 17 वी शताब्दी के पहले तक इसका नामोनिशान तक भारत में नहीं था। 'गजरा-केसऊर' वाले सरस्वती माता के भक्तों के लिए यह हार्ट ब्रेकिंग न्यूज़ है कि मिश्रीकंद भारत की मौलिक पैदाइश नहीं है। लगभग 3000 वर्षों से भी पहले से मेक्सिको और लैटिन अमेरिकी देशों में इसका उपयोग खाद्य पदार्थ के रूप में किए जाने के पुरातात्विक प्रमाण उपलब्ध है। 17 वी शताब्दी में कुछ स्पेनिश नाविको और व्यापारियों ने मिश्रीकंद के बीज फिलीपींस में लाकर लगाए और वहीं से धीरे-धीरे लगभग पूरे एशिया में फैल गया। इस प्रकार प्रायः 18 वीं सदी से मिश्रीकंद भारत में प्रचलित हुआ। और तब से पंडे पुजारियों ने सरस्वती माता की पूजा में इसे अनिवार्य प्रसाद अवयव के रूप में शामिल कर लिया। वर्तमान परिदृश्य में इसका व्यापारिक महत्व बढ़ गया है। कभी कौड़ियों के मोल बिकने वाला यह कंद आज बाजार में अच्छी कीमत पर बिकता है। यद्यपि खेती को प्रायः घाटे का सौदा कहा जाता है परंतु फायदे वाली कुछ गिनी चुनी फसलों में से मिश्रीकंद भी अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती है। इस आलेख में इसकी खेती के सभी पहलुओं पर प्रकाश डाला जाएगा।

रोपने का उचित समय : 1 जुलाई से 15 सितंबर।

उपयुक्त भूमि : उपजाऊ दोमट एवं बलुई दोमट मिट्टी वाली भूमि मिश्रीकंद की खेती के लिए उपयुक्त मानी जाती है। ध्यान रहे जिस जमीन का चुनाव इसकी खेती के लिए कर रहे हैं उसमें जलजमाव की संभावना ना हो।

उन्नत प्रभेद : राजेंद्र मिश्रीकंद-1 और 2, इनके अतिरिक्त विभिन्न प्रचलित स्थानीय किस्में।

खेत की तैयारी : 200 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से कंपोस्ट डालकर गहरी जुताई करें। यह जुताई रोटावेटर से ना करें। 1 सप्ताह बाद दूसरी जोताई करें और पाटा मारकर समतल कर ले। यदि खरपतवार ना हो और मिट्टी हल्की एवं भुरभुरी हो जाए तो दो ही जुताई  काफी है अन्यथा तीसरी जुताई की भी जरूरत पड़ सकती है। अनुशंसित मात्रा में रासायनिक उर्वरक डालकर ही अंतिम जुताई करें।

बीज की मात्रा : जुलाई महीने की बुवाई में 15 से 20 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर से लगाएं। अगस्त महीने में बोना है तो बीज की मात्रा बढ कर 30 से 40 किलोग्राम हो जाती है। वही सितंबर माह में रोपने के लिए 50 से 60 किलोग्राम बीज लगता है। यहां स्पष्ट करना जरूरी है कि अगात खेती में बीज कम लगने का मुख्य कारण फसल की समय अवधि अधिक होना है जिससे पौधों के विकास फैलाव और कल्ले निकलने के लिए पर्याप्त समय मिल जाता है। अगस्त सितंबर में बोने से समय कम मिलता है और कल्ले निकलने का पर्याप्त अवसर नहीं मिलता। इसी कमी की पूर्ति के लिए बीज की मात्रा बढ़ाई जाती है।

खाद एवं उर्वरक : यहां सभी मात्राएं एक हेक्टेयर खेती के लिए बताई जा रही हैं। कंपोस्ट 200 क्विंटल, सिंगल सुपर फास्फेट 2.5 क्विंटल, यूरिया 1.75 क्विंटल और म्यूरेट ऑफ पोटाश (एम ओ पी) 1.35 क्विंटल। इसमें से आधी मात्रा यूरिया की बुवाई के समय देनी है और आधी 40 से 50 दिन बाद।

रोपन योजना (Plantation plan) : एकल फसल के रूप में मिश्रीकंद को निम्न प्रकार से रोपा जाता है - जुलाई महीने में कतार से कतार और पौधे से पौधे की दूरी 30 सेंटीमीटर रखी जाती है। अगस्त महीने में कतार से कतार की दूरी 30 सेंटीमीटर और पौधे से पौधों की दूरी 15 सेंटीमीटर रखी जाती है जबकि सितंबर महीने की रोपाई में यह दूरी घटकर 15 * 15 सेंटीमीटर रह जाती है।

खरपतवार नियंत्रण : रोपाई के लगभग 30 दिन बाद निराई गुड़ाई करना जरूरी है। क्योंकि बरसात के कारण अवांछित खरपतवार जल्द ही निकल आते हैं और फसली पौधे को दबाने लगते है। निराई का दूसरा लाभ यह है कि मिट्टी की ऊपरी परत हल्की और वात रंध्र से परिपूर्ण हो जाती है। यदि पुनः घास उग आए तो 50 से 60 दिन बाद फिर से निराई गुड़ाई करें।


अन्य आवश्यक क्रियाकलाप : जब पुष्प कलियाँ निकलने लगे तो यथासंभव उन्हें तोड़ दे। फलियां लग जाएंगी तो कंद बनने की प्रक्रिया बाधित होगी और उपज तीन चौथाई घट जाएगी। किंतु यदि आपका फोकस बीज उत्पादन पर है तो आप पुष्पदंडों को बिल्कुल ना तोड़े और यथासंभव फलन को प्रेरित करने वाला हार्मोन दवा मीराकुलान स्प्रे करें। बड़े पैमाने पर कंद के लिए खेती कर रहे हैं तो हाथ से पुष्पदंड को तोड़ना आसान काम नहीं है। इसके लिए रासायनिक विधि का उपयोग अधिक सुविधाजनक है। ऑक्सीन श्रेणी के हार्मोन 2, 4-डी का छिड़काव करके भी अपेक्षित परिणाम प्राप्त कर सकते हैं। इसके 0.004 % सॉल्यूशन का उपयोग करें।

पादप संरक्षण : मिश्रीकंद की जड़ को छोड़कर अधिकांश हिस्से विषैले होते हैं इसलिए इसकी फसल पर कीट पतंगों का ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ता है। किंतु फफूंद जनित बीमारी पत्र लांछन हो सकती है । इसके नियंत्रण के लिए इंडोफिल एम - 45 दो ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर स्प्रे करें। एक हेक्टेयर में यह दवा लगभग 2 किलोग्राम लगती है। एक हेक्टेयर में 1000 लीटर पानी लगता है।

सिंचाई : आमतौर पर नवंबर महीने तक खेतों में पर्याप्त नमी रहती है किंतु दिसंबर से जनवरी के बीच सिंचाई की आवश्यकता पढ़ सकती है। जब खेत में मिट्टी सूख कर दरारें पड़ने लगे तो सिंचाई कर दें अन्यथा कंद फटने लगते हैं और उपज में भी कमी आ जाती है। किंतु ध्यान रहे कहीं जलजमाव ना हो।

                       एकल फसल के अलावा मिश्रीकंद की खेती मिश्रित फसल के रूप में भी सफलतापूर्वक की जाती है। कुछ प्रचलित कंबीनेशन निम्नलिखित हैं - मिश्रीकंद + तुवर, मिश्रीकंद + मकई ,मिश्रीकंद + मकई+ अरहर।

लागत : जोताई बीज खाद उर्वरक लेबर कंपोनेंट पेस्टिसाइड्स सिंचाई इत्यादि के ऊपर मुख्य रूप से खर्च होता है जो इस प्रकार है :

          जुताई - ₹1,500

खाद एवं उर्वरक - ₹27,000

              बीज - ₹18,000

    लेबर कंपोनेंट - ₹15,000

हार्मोन फंगीसाइड - ₹2,000 

            सिंचाई -- ₹3500

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       कुल खर्च = ₹81,000

आमदनी(income) : न्यूनतम उपज 400 क्विंटल और न्यूनतम थोक विक्रय दर 1,200 रुपया प्रति क्विंटल लें तो ₹4,80,000 प्राप्त होते हैं। इस प्रक्रिया के दौरान 81,000 रुपए का 8 महीने का ब्याज ग्रामीण महाजनी दर से ₹32,400 होता हैं। और यदि किसान का अपना खेत नहीं है तो एक हेक्टेयर का किराया ₹25,000 लगेगा। इस प्रकार एक हेक्टेयर मिश्रीकंद की खेती पर कुल खर्च बैठता है ₹1,38,400/- । इसे कुल प्राप्ति में से घटाने पर शुद्ध लाभ ₹3,41,600 आता है।

8 महीने में निवेश का लगभग 250% रिटर्न देने वाला यह काम करने को कहा जाए तो क्या आप करना चाहेंगे ?

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